लेखनी कहानी -09-Mar-2023- पौराणिक कहानिया
बजरंगी-मरने के
लिए कलेजा चाहिए।
जब हम ही
मर गए, तो
घर लेकर क्या
होगा?
नायकराम-ऐसे बहुत
मरनेवाले देखे हैं,
घर से निकला
ही नहीं गया,
मरने चले हैं।
भैरों-उसकी न
चलाओ पंडाजी, मन
में आने की
बात है।
दूसरे दिन से
तखमीने के अफसर
ने मिल के
एक कमरे में
इजलास करना शुरू
किया। एक मुंशी
मुहल्ले के निवासियों
के नाम, मकानों
की हैसियत, पक्के
हैं या कच्चे,
पुराने हैं या
नए, लम्बाई, चौड़ाई
आदि की एक
तालिका बनाने लगा। पटवारी
और मुंशी घर-घर घूमने
लगे। नायकराम मुखिया
थे। उनका साथ
रहना जरूरी था।
इस वक्त सभी
प्राणियों का भाग्य-निर्णय इसी त्रिामूर्ति
के हाथों में
था। नायकराम की
चढ़ बनी। दलाली
करने लगे। लोगों
से कहते, निकलना
तो पड़ेगा ही,
अगर कुछ गम
खाने से मुआवजा
बढ़ जाए, तो
हरज ही क्या
है। बैठे-बिठाए,
मुट्ठी गर्म होती
थी, तो क्यों
छोड़ते! सारांश यह कि
मकानों की हैसियत
का आधाार वह
भेंट थी, जो
इस त्रिामूर्ति को
चढ़ाई जाती थी।
नायकराम टट्टी की आड़
से शिकार खेलते
थे। यश भी
कमाते थे, धान
भी। भैरों का
बड़ा मकान और
सामने का मैदान
सिमट गए,उनका
क्षेत्राफल घट गया,
त्रिामूर्ति की वहाँ
कुछ पूजा न
हुई। जगधार का
छोटा-सा मकान
फैल गया। त्रिामूर्ति
ने उसकी भेंट
से प्रसन्न होकर
रस्सियाँ ढीली कर
दीं, क्षेत्राफल बढ़
गया। ठाकुरदीन ने
इन देवतों को
प्रसन्न करने के
बदले शिवजी को
प्रसन्न करना ज्यादा
आसान समझा। वहाँ
एक लोटे जल
के सिवा विशेष
खर्च न था।
दोनों वक्त पानी
देने लगे। पर
इस समय त्रिामूर्ति
का दौरदौरा था,
शिवजी की एक
न चली। त्रिामूर्ति
ने उनके छोटे,
पर पक्के घर
को कच्चा सिध्द
किया था। बजरंगी
देवतों को प्रसन्न
करना क्या जाने।
उन्हें नाराज ही कर
चुका था, पर
जमुनी ने अपनी
सुबुध्दि से बिगड़ता
हुआ काम बना
लिया। मुंशीजी उसकी
एक बछिया पर
रीझ गए, उस
पर दाँत लगाए।
बजरंगी जानवरों को प्राण
से भी प्रिय
समझता था, तिनक
गया। नायकराम ने
कहा, बजरंगी पछताओगे।
बजरंगी ने कहा,
चाहे एक कौड़ी
मुआवजा न मिले,
पर बछिया न
दूँगा। आखिर जमुनी
ने, जो सौदे
पटाने में बहुत
कुशल थी, उसको
एकांत में ले
जाकर समझाया कि
जानवरों के रहने
का कहीं ठिकाना
भी है? कहाँ
लिए-लिए फिरोगे?
एक बछिया के
देने से सौ
रुपये का काम
निकलता है, तो
क्यों नहीं निकालते?
ऐसी न-जाने
कितनी बछिया पैदा
होंगी, देकर सिर
से बला टालो।
उसके समझाने से
अंत में बजरंगी
भी राजी हो
गया!
पंद्रह दिन तक
त्रिामूर्ति का राज्य
रहा। तखमीने के
अफसर साहब बारह
बजे घर से
आते, अपने कमरे
में दो-चार
सिगार पीते, समाचार-पत्रा पढ़ते, एक
दो बजे घर
चल देते। जब
तालिका तैयार हो गई,
तो अफसर साहब
उसकी जाँच करने
लगे। फिर निवासियों
की बुलाहट हुई।
अफसर ने सबके
तखमीने पढ़-पढ़कर
सुनाए। एक सिरे
से धााँधाली थी।
भैरों ने कहा-हुजूर, चलकर हमारा
घर देख लें,
वह बड़ा है
कि जगधार का?
इनको मिले 400 रुपये
और मुझे मिले
300 रुपये। इस हिसाब
से मुझे 600 रुपये
मिलना चाहिए।
ठाकुरदीन बिगड़ीदिल थे ही,
साफ-साफ कह
दिया-साहब, तखमीना
किसी हिसाब से
थोड़े ही बनाया
गया है। जिसने
मुँह मीठा कर
दिया,उसकी चाँदी
हो गई; जो
भगवान् के भरोसे
बैठा रहा, उसकी
बधिाया बैठ गई।
अब भी आप
मौके पर चलकर
जाँच नहीं करते
कि ठीक-ठीक
तखमीना हो जाए,
गरीबों के गले
रेत रहे हैं।
अफसर ने बिगड़कर
कहा-तुम्हारे गाँव
का मुखिया तो
तुम्हारी तरफ से
रख लिया गया
था। उसकी सलाह
से तखमीना किया
गया है। अब
कुछ नहीं हो
सकता।
ठाकुरदीन-अपने कहलानेवाले
तो और लूटते
हैं।
अफसर-अब कुछ
नहीं हो सकता।
सूरदास की झोंपड़ी
का मुआवजा 1 रुपये
रक्खा गया था,
नायकराम के घर
के पूरे तीन
हजार! लोगों ने
कहा-यह है
गाँव-घरवालों का
हाल! ये हमारे
सगे हैं, भाई
का गला काटते
हैं। उस पर
घमंड यह कि
हमें धान का
लोभ नहीं। आखिर
तो है पंडा
ही न, जात्रिायों
को ठगनेवाला! जभी
तो यह हाल
है। जरा-सा
अख्तियार पाके ऑंखें
फिर गईं। कहीं
थानेदार होते, तो किसी
को घर में
रहने न देते।
इसी से कहा
है, गंजे के
नह नहीं होते।
मिस्टर क्लार्क के बाद
मि. सेनापति जिलाधाीश
हो गए। सरकार
का धान खर्च
करते काँपते थे।
पैसे की जगह
धोले से काम
निकालते थे। डरते
रहते थे कि
कहीं बदनाम न
हो जाऊँ। उनमें
यह आत्मविश्वास न
था, जो ऍंगरेज
अफसरों में होता
है। ऍंगरेजों पर
पक्षपात का संदेह
नहीं किया जा
सकता, वे निर्भीक
और स्वाधाीन होते
हैं। मि. सेनापति
को संदेह हुआ
कि मुआवजे बड़ी
नरमी से लिखे
गए हैं। उन्होंने
उसकी आधाी रकम
काफी समझी। अब
यह मिसिल प्रांतीय
सरकार के पास
स्वीकृति के लिए
भेजी गई। वहाँ
फिर उसकी जाँच
होने लगी। इस
तरह तीन महीने
की अवधिा गुजर
गई, और मि.
जॉन सेवक पुलिस
के सुपरिंटेंडेंट, दारोगा
माहिर अली और
मजदूरों के साथ
मुहल्ले को खाली
कराने के लिए
आ पहुँचे। लोगों
ने कहा, अभी
तो हमको रुपये
नहीं मिले। जॉन
सेवक ने जवाब
दिया, हमें तुम्हारे
रुपयों से कोई
मतलब नहीं;रुपये
जिससे मिलें, उससे
लो। हमें तो
सरकार ने 1 मई
को मुहल्ला खाली
करा देने का
वचन दिया है,
और अगर कोई
कह दे कि
आज 1 मई नहीं
है, तो हम
लौट जाएँगे। अब
लोगों में बड़ी
खलबली पड़ी, सरकार
की क्या नीयत
है? क्या मुआवजा
दिए बिना ही
हमें निकाल दिया
जाएगा, घर का
घर छोड़े और
मुआवजा भी न
मिले! यह तो
बिना मौत मरे।
रुपये मिल जाते,
तो कहीं जमीन
लेकर घर बनवाते,
खाली हाथ कहाँ
जाएँ। क्या घर
में खजाना रखा
हुआ है! एक
तो रुपये के
चार आने मिलने
का हुक्म हुआ,
उसका भी यह
हाल! न जाने
सरकार की नीयत
बदल गई कि
बीचवाले खाये जाते
हैं।